नई मंज़िल: अक्षमता से जूझ रहे भारतीयों के सपनों में रंग भरने की एक कोशिश

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"मैं काम करना चाहता हूं. पैसा कमाकर अपने परिवार की कुछ मदद करना चाहता हूं."

केरल में बड़े हुए अनस का बचपन से यही सपना था क्योंकि उसने अपने परिवार को उसकी देखभाल के लिए हमेशा संघर्ष करते हुए देखा था. जन्म से ही बौद्धिक और सीखने से जुड़ी अक्षमता के चलते उन्हें अपने रोज़मर्रा के कामों में भी काफ़ी जूझना पड़ता था. आज, 27 वर्षीय अनस एक डाटा एंट्री ऑपरेटर के तौर काम करके अपना पैसा कमा रहे हैं और अपना और अपने परिवार का सहयोग कर रहे हैं.

हाशिर उत्तरी केरल के मल्लपुरम जिले में रहते हैं. अनस की तरह, वह भी बौद्धिक अक्षमताओं से जूझते हुए बड़े हुए हैं. आज, 24 साल का ये उत्साही नौजवान बच्चों को कंप्यूटर चलाना सिखाता है और निकट भविष्य में प्रशिक्षक बनना चाहता है.  

अनस और हाशिर की तरह, किसी भी तरह की अक्षमता (शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक) जूझ रहे व्यक्तियों का जीवन संघर्षों और निराशाओं की कहानियों से भरा होता है. लेकिन उनमें उम्मीदों और धैर्य की भी कोई कमी नहीं होती. उन्होंने इन कड़ी मुश्किलों को अपने परिवार और भारत सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रम "नई मंज़िल (न्यू होराइजंस)" की मदद से पार किया है.

नई मंज़िल कार्यक्रम भारत के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय द्वारा देश भर के 26 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों में चलाया जा रहा है, जिसके तहत अल्पसंख्यक समुदाय के उन युवाओं को छह महीने की शिक्षा और तीन महीने का कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है, जिनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई है. इसके साथ ही उन्हें 6 महीने तक अतिरिक्त सहयोग प्रदान किया जाता है ताकि वे आत्मनिर्भर बन सकें.

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नई मंज़िल कार्यक्रम भारत के अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय द्वारा देश भर के 26 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों में चलाया जा रहा है, जिसके तहत अल्पसंख्यक समुदाय के उन युवाओं को छह महीने की शिक्षा और तीन महीने का कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है, जिनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई है.

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भारत सरकार की 2011 की जनगणना के अनुसार, क़रीब 2.6 करोड़ लोग बौद्धिक या शारीरिक अक्षमताओं से जूझ रहे हैं और उनमें बच्चों और युवाओं की संख्या 1.2 करोड़ है. भारत में, दिव्यांग बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा से आगे बढ़ पाने की संभावना काफ़ी कम है और केवल 9 प्रतिशत बच्चे ही माध्यमिक शिक्षा पूरी कर पाते है. इसका कारण ये है कि शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम बच्चों की शिक्षा के लिए बने कई विशेष विद्यालयों को शिक्षा विभाग द्वारा औपचारिक तौर पर प्रमाणित नहीं किया गया है. जिसका परिणाम ये है प्रमाणित शिक्षा या कौशल प्रशिक्षण न मिल पाने के कारण उन्हें कोई उपयुक्त रोजगार नहीं पा रहा है. आंकड़ों के मद्देनजर देखें तो अन्य लोगों की तुलना में शारीरिक या मानसिक अक्षमता से जूझ रहे लोगों के बेरोजगार होने की संभावना दोगुनी होती है.

2015 में शुरू हुए नई मंज़िल कार्यक्रम की एक बहुत बड़ी उपलब्धि ये है कि इसने अक्षमता से जूझ रहे अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं को औपचारिक शिक्षा और कौशल विकास का अवसर प्रदान किया है.

रूपा नई मंज़िल कार्यक्रम की एक लाभार्थी हैं. वह हड्डियों से जुड़ी शारीरिक अक्षमता से जूझती हैं और अपने केवल एक हाथ का प्रयोग कर पाती हैं. जब वो स्कूल में थीं, तभी उनकी शादी हो गई और इसके चलते उनकी पढ़ाई छूट गई. जब तक वो नई मंज़िल कार्यक्रम से जुड़ पाईं, तब तक उनकी पढ़ाई छूटे एक दशक से भी ज्यादा समय गुजर गया है. डर और अनिश्चितता से जूझते हुए भी उन्होंने खुद पर भरोसा किया और आठवीं कक्षा को पास करने में वो सफ़ल रहीं. और उसके बाद उन्होंने कौशल प्रशिक्षण के लिए आवेदन किया. आज, 33 साल की उम्र में वो एक अस्पताल में एक बेडसाइड असिस्टेंट के तौर पर काम कर रही हैं और पैसा कमा रही हैं. रूपा बड़े गर्व से याद करते हुए बताती हैं कि कैसे

साक्षात्कार के दौरान उनकी शारीरिक अक्षमता का ज़िक्र तक नहीं किया गया था. "उन्होंने मेरी जानकारी और क्षमता को लेकर सवाल किया. वे जानना चाहते थे कि क्या मैं अपना काम अच्छे से कर सकती हूं."  

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2015 में शुरू हुए नई मंज़िल कार्यक्रम की एक बहुत बड़ी उपलब्धि ये है कि इसने अक्षमता से जूझ रहे अल्पसंख्यक समुदाय के युवाओं को औपचारिक शिक्षा और कौशल विकास का अवसर प्रदान किया है.

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16 साल की उम्र में हुए एक हादसे के चलते लक्ष्मी का शरीर कमर के नीचे लकवाग्रस्त हो गया. अपने परिवार की मदद करने के लिए उसे मजबूरी में पांचवीं कक्षा के दौरान ही स्कूल छोड़ना पड़ा था, लेकिन उसमें हमेशा से अपनी पढ़ाई पूरी करने की ललक थी. नई मंज़िल

कार्यक्रम ने उसे ये अवसर दिया. आज, शिक्षा और कौशल प्रशिक्षण पाकर वह हैदराबाद के पास सिद्दिपेट जिले के एक अस्पताल में एक बेडसाइड असिस्टेंट के तौर पर काम कर रही हैं. अब वो आत्मविश्वास से लबरेज़ और निडर होकर आगे भी पढ़ना चाहती हैं और अपने काम में और भी बेहतर होना चाहती हैं.

नई मंज़िल कार्यक्रम ने इन युवाओं को खुद पर और अपनी काबिलियत पर यकीन करना भी सिखाया है ताकि वे अपने ऊपर जिम्मेदारियों के बढ़ने से घबराएं नहीं और उन्हें अच्छी तरह से निभाएं. उदाहरण के लिए, 2019 में केरल में बाढ़-आपदा के दौरान, अनस और उसके दोस्तों ने बाढ़ राहत एवं बचाव कार्य के लिए अपने पड़ोस में घर-घर जाकर एक लाख रूपये का चंदा इकट्ठा किया, जिसे उन्होंने स्थानीय सरकार को दे दिया. स्थानीय सरकार के प्रतिनिधि ने उन सभी छात्रों में आए परिवर्तन को सराहते हुए कहा कि "वे सभी अपनी 'सहायता-निर्भर स्थिति' से उबरकर 'सामाजिक रूप से ज़िम्मेदार नागरिक बन गए हैं."

यह कुछ मायनों में कार्यक्रम की कई सफलताओं में से एक है. नई मंज़िल कार्यक्रम इन युवाओं को समुदाय के हिस्से के रूप में आगे बढ़ने और गरिमापूर्ण तरीके से जीने और समुदाय में अपना योगदान देने के अवसर प्रदान कर रहा है.

विश्व बैंक ने नई मंज़िल कार्यक्रम के समर्थन के लिए 50 मिलियन डॉलर के ऋण का योगदान दिया है. नई मंज़िल कार्यक्रम पर प्रकाशित लेखों की श्रृंखला में यह दूसरा है. भारत में अल्पसंख्यक महिलाओं के सशक्तिकरण पर लिखे गए पहले लेख को यहां देखा जा सकता है.


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